स्मृतियाँ द्वार खटखटाती हैं
इनसे कहो भवन में नहीं कोई
सोफा है धूल धूसरित कब से
टेबिल पर ढेर है किताबों का
आहत है रिफिल सूख जाने से
रंग उड़ा कागजों गुलाबों का
चाहतें पंख फड़फड़ाती हैं
इनसे कहो भवन में नहीं कोई
कौन पढ़े अनजानी-सी लिपि में
दीर्घ कथा भवन में दरारों की
कौन सुने सूनेपन में गुंजित
मौन व्यथा जंग लगे द्वारों की
बस आँखें रोज डबडबाती हैं
इनसे कहो भवन में नहीं कोई
कौन कहाँ करे कहो नीराजन
खंडित हैं प्रतिमाएँ मंदिर में
पूजित थीं, रहीं केंद्र श्रद्धा का
अब होनी विसर्जित समुंदर में
पीड़ाएँ व्यर्थ बुदबुदाती हैं